Thursday, April 21, 2016

समानांतर कहानियां

धूल भरी हवाओं और तेज़ धूप वाले चैत महीने का तीसरा पहर तो जैसे जान ही ले लेता है।रह रह के कहीं कोयल कूक उठती है। कहीं अचानक कोई महुआ टपक पड़ता है और कहीं आम की बौर में लुकाए कौए शोर मचाते रहते हैं।
इस सख्त धूप में भी वादों और उम्मीदों की फसल एक साथ लहलहा रही है क्योंकि चुनाव की सरगर्मियां भी बढ़ गई हैं और शादियों की खरीदारी भी।इसी में शक्ति बाबू का विवाह भी था कल। रास्ते में गजब की भीड़ एक ओर बारात के गाड़ियों की जल्दबाजी जैसे दुल्हन को अभी उठा लाना हो, और दूसरी तरफ चुनावी सभा करके लौट रहे केसरिया झंडों का जुलूस जैसे किसी सम्राट का दिग्विजय रथ निकला हो। मेरे गाड़ी के ड्राइवर ने इज्ज़त (शायद खौफ़) से गाड़ी किनारे खड़ी कर ली। अचानक नगाड़े के आकाशभेदी ध्वनि से वातावरण कांप उठा था। मैंने देखा शक्ल सूरत से मुसलमान दिखने वाला व्यक्ति 'युद्ध नाद' बजाए जा रहा है... बजाए जा रहा है। मुझे यह धुन बहुत पसंद है, क्योंकि वाद्ययंत्र वादक और वातावरण तीनों एक साथ उत्साहित हो उठते हैं। 'युद्ध नाद' अलग तरह की शैली है। बजाने वाला जैसे बरछी चला रहा हो, वही युद्धोन्माद चेहरे पर भी होता है और नगाड़े की आवाज में भी। शत्रु पक्ष में खौफ छा जाता है और मित्र पक्ष में जैसे उन्माद।
गाड़ियों की भीड़ गुजर जाने के बाद मैंने उस वादक से पूछा - चचा कितना पैसा मिलता है?
चचा ने झिझकते हुए कहा - साठ रुपए ...
मैंने पूछा - इस लडके को कितना मिलता है?
चचा ने कहा - ई तो बच्चा है। सीख रहा है अभी। इसको दस बीस रुपए बख्शीश मिल जाए वही बहुत है।
ओह! चेहरे पर आए इस दर्प, स्वाभिमान और आक्रामकता के पीछे कितनी गरीबी दयनीयता और करुणा है।
मैंने कहा - कौन सी पार्टी जीतेगी चचा?
उन्होंने कहा - मोदिया की पार्टी जीतेगी।
मैंने कहा - क्या होगा मोदी जी के जीतने से?
चचा की आंखों में चमक आ गई और बोले -हम बुनकरों पर भी ध्यान देने को कहें हैं मोदी।
मैंने पूछा - अच्छा चचा नाम क्या है आपका?
उन्होंने कहा - नसीर ....
अचानक मैंने उस बुनकर नसीर के कुर्ते की पीठ पर सटाई गई कपड़ों की चकत्तियां देखीं। मन भर आया... चुपचाप गाड़ी में आकर बैठ गया।
             भोपाल की गलियों में धूप का असर ज्यादा नहीं होता।लेकिन पसीना खूब निकलता है। प्रकृति का शहर है भोपाल।पहाडी झरनों और पेड़ों की सुंदरता से सजा हुआ एक मेहनती प्रदेश।
इसी शहर की एक तंग गली में साइकिलों के पंचर बनाने की एक दुकान के सामने एक बड़ी सी गाड़ी बल खाते, बचते बचाते आ कर रुकी थी। गाड़ी से निकल कर उज़ैर खान साहब ने पूछा - मोहतरम नसीर खान साहब कहां मिलेंगे?
पंचर बनाने वाले उस आदमी ने उड़ती हुई सी नज़र डाली और काम में लगा रहा।
दो मिनट बाद फिर उज़ैर साहब ने कहा - जनाब नसीर खान साहब...
मैं नहीं जानता किसी नसीर खान को- पंचर बना रहे बूढ़े की आवाज भी कांपी और हाथ भी।
उज़ैर साहब ने कहा -अगर मैं आपके अज़ीज़ जनाब मो उमर खान का बेटा होता तो भी दो मिनट का वक्त न देते आप?
बूढ़े की गीली आंखों ने पानी जज़्ब करते हुए कहा- आइए!
उज़ैर खान साहब वक्त की इस संगसारी पर हैरान रह गए। कभी यह बूढ़ा अदब की शान हुआ करता था। इसकी गजलों रुबाइयों और कलामों पर शहरेअदब रश्क करता था। और आज इस अजीम शख्सियत की यह हालत?
उज़ैर खान साहब के हाथों पर एक शेरवानी धरते हुए बूढ़े ने कहा - बेटा यही आखिरी निशानी है मेरी आवारगी की।
उज़ैर साहब ने नरम हाथों से टटोला होगा उस शेरवानी को जिसकी तहों में किसी लेखक के गुमनामी की कहानी दर्ज होगी। जिसकी सलवटों में तवारीख का एक एक कोना खून से लथपथ होगा। उज़ैर साहब के कुछ पाक आंसू भी गिरे होंगे उस पैरहन पर...। उज़ैर साहब ने कहा होगा कि मैं किसी अकादमी से बात करता हूं। आपके भी कलाम शाया होंगे। दुनिया आपकी सही कीमत जानेगी। यह सुनकर नसीर खान की आँखों में एक चमक कौंधी होगी...।
              मैं गुजरते हुए इस जुलूस के गौरव को महसूस कर रहा था। नगाड़े की आवाज मेरे अंदर बम फटने जैसे लग रहा थी । मैंने ड्राइवर से कहा - जल्दी चलिए यहां से बहुत शोर हो रहा है।
ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढा दी थी लेकिन नसीर के नगाड़े की आवाज अब भी सुनाई दे रही थी। तभी मोबाइल की आवाज ने मेरा ध्यान खींचा। उज़ैर खान साहब का फोन है। मैंने फोन उठाया। उधर से आवाज आई - असित भाई आज एक नसीर साहब से मिलना हुआ।
मैंने कहा - सर, मेरा भी नसीर से मिलना हुआ।
उन्होंने कहा - यार ऐसा नहीं होना था नसीर साहब के साथ।
मैंने कहा - जी सर ऐसा नहीं होना था नसीर के साथ।
उन्होंने कहा - मैं सोच रहा हूँ कि आखिर कौन दोषी है नसीर के इस हाल के लिए। मैंने कहा - जी सर मैं भी सोच रहा हूँ कि कौन दोषी है नसीर के इस हाल के लिए।            उज़ैर साहब ने कहा - यार तुम मेरी ही बात क्यों दुहरा रहे हो?
मैंने फोन काट दिया। क्या कहता कि उज़ैर साहब! ऐसी अनगिनत समानांतर कहानियां रोज घट रही हैं हमारे चारों ओर। कोई भोपाल का नसीर है कोई बलिया का। कोई हिंदू धर्म का नसीर है कोई मुसलमान धर्म का। अकादमियों के अध्यक्ष बदलते गये सत्ता के केंद्र बदलते गये लेकिन नहीं बदली तो नसीर की किस्मत।
उज़ैर सर ने फिर फोन किया है - असित मुझे नसीर साहब की आवाज अब भी सुनाई दे रही है।
मैंने थोड़ा ध्यान से सुनने की कोशिश की। नसीर के नगाड़े की आवाज... हाँ हल्की-सी आवाज अब भी आ रही है... उफ़ ये समानांतर कहानियां।
असित कुमार मिश्र
बलिया

Tuesday, April 19, 2016

एक कस्बे की मृत्यु गाथा

थोड़ा अजीब है शीर्षक लेकिन यही ठीक लगा इस कहानी के लिए। हाँ तो बलिया जिले में आज से मात्र बीस पच्चीस साल पहले एक कस्बा हुआ करता था सिकन्दर पुर नाम का। पुरखे पुरनिये बताते थे कि सिकन्दर लोदी का बसाया कस्बा है यह। जो भी हो सिकन्दर पुर बस तीन चीजों के लिए जाना जाता था गुलाब शकरी, गुलाब जल और गुलाबकंद। बांग्लादेश फारस ओमान पाकिस्तान पता नहीं कहां कहां तक जाती थी इस कस्बे की बनी वस्तुएं।
थोड़ा अंदर ले चलता हूं। वो जो वेलेंटाइन डे वाला गुलाब देखते हैं न आप वही गुलाब यहां मीलों दूर तक गुलबिया रंगत लिए फैला रहता था खेतों में। गुलाब की खासियत है कि खिलने से बिखर जाने तक न उसकी मुहब्बत में कमी आती है न कीमत में।गुलाब की खेती मेहनत का काम है। किसान खेतों में उगा कर उसे चालीस रुपये किलो से लेकर पचास रुपए किलो तक सट्टी पर (बिचौलिये के यहां) बेचता था।एक सट्टी पर एक दिन में लगभग दो से चार क्विंटल गुलाब आते थे।  बिचौलिया उसे अस्सी रुपये किलो माली को बेचता था या बिजनेस वालों को। यहीं से ताजा गुलाब माला मंडप आदि आयोजनों के लिए जाता था। अगर गुलाब दो दिन नहीं बिका तो उसका गुलाब जल बन जाएगा अगर चार दिन नहीं बिका तो गुलाब शकरी अगर आठ दिन नहीं बिका तो गुलाब कंद। उसके बाद भी बच गया तो कश्मीरी शमामा अतरेआइशा खस जैसा इत्र बन जाता था या अगरबत्तियां। मतलब एकदम कागज की तरह सूखा गुलाब भी कुछ न कुछ देकर ही जाता था। सैकड़ों हिंदू मुसलमान इस फूलों के कारोबार से जुड़े थे।
            एक छोटा सा काम और होता था इस कस्बे में बिंदी बनाने का। जो शिल्पा छाप बिंदी आप बाजार में देखते हैं वो यहाँ बीस रुपए सैकड़े के हिसाब से बनती थीं और कोलकाता बनारस दिल्ली तक जाकर बीस रुपए में एक मिलती थी। मैं आपको कागजी आंकड़े नहीं बता रहा। डाबर का रोज वाटर सौ एम एल चालीस रुपये का मिल रहा है और यहां आज भी गुलाब जल एक सौ साठ रूपये लीटर में एकदम शुद्ध मिलता है.... लेकिन आज इसी कस्बे ने सामूहिक आत्महत्या कर ली। अब गुलाब गमलों में दिखते हैं और गुलाब शकरी चमकीले कागजों में धरोहर की तरह कैद हो चुके हैं।
                  आज स्विट्जरलैंड में रहने वाले मेरे एक कवि मित्र ने सवाल किया है कि आखिर यूपी बिहार से पलायन भूख बेरोजगारी क्यों नहीं जा रही?
पहले तो यह बता दूं कि यह बड़ा विषय है एक पन्ने में नहीं लिखा जा सकता। और दूसरी बात मेरी जानकारी सीमित है इस पर तो हमारे प्रशासकों राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए। मैं बहुत तो जिले स्तर की बात कर सकता हूं। और मेरी समझ से हर जिले की अपनी अर्थव्यवस्था थी जैसे बनारस बनारसी साड़ियों मऊ मऊवाली साड़ियों अलीगढ़ ताले फिरोजाबाद चूड़ियों और कन्नौज इत्र के लिए प्रसिद्ध था।यूपी बिहार के लगभग सभी जिले अपने-अपने छोटे व्यवसायों के लिए जाना जाता था। पूंजी का प्रवाह दोनों ओर से होता था। आज मुझे एक रुपये के शैंपू या दस हजार के रेफ्रिजरेटर के लिए शहर जाना पड़ता है लेकिन सालों बीत गए और शहर कभी मेरे पास नहीं आया दूध खरीदने क्योंकि अमूल का दूध शहर में है। कभी शहर छाछ खरीदने नहीं आता गांव में क्योंकि पैक्ड छाछ भी शहर में है... मतलब पूंजी का प्रवाह एकतरफा और तेजी से हो रहा है। आप पूछते हैं गांव क्यों मर रहा है? इसीलिए तो मर रहा है।
जिन हाथों को आज शासन एक हज़ार रुपए का बेरोजगारी भत्ता दे रही थी वही हाथ कल गुलाब खिलाते थे या चीनी मिल में गन्ना पेरते थे। आज न गुलाब है न गन्ने। इसीलिये पलायन हो रहा है। भोजपुरी क्षेत्र में बूढ़ी महिलाएं इतनी कर्मठी होती हैं कि मरने के दिन तक काम करती हैं। उनके कर्मठी हाथों में वृद्धा पेंशन का तीन सौ रुपए का चेक धरा दिया गया। जो कांपते हाथ बिंदिया टांकते थे उन्हें वोट बैंक ने और गलत व्यापारिक नीतियों ने बीपीएल और एपीएल हाथों में बदल दिया।
          उत्तर प्रदेश में चुनाव आने वाले हैं। हर पार्टी हर नेता विकास का वादा करेगा। कोई महीने में चालीस किलो अनाज की भीख देगा और कोई कंप्यूटर लैपटॉप साड़ी और शराब का नजराना। लेकिन रोजगार की बात कोई नहीं करता। सपा बसपा ने फेर बदल कर खोखला कर दिया पूरे प्रदेश को।सिकन्दर पुर कस्बे ने ही आत्महत्या नहीं की। पूरे प्रदेश ने सामूहिक आत्महत्या की है। आज न बनारसी साड़ियाँ हैं न मऊवाली। न अलीगढ़ के ताले हैं न कनपुरिया जूते। न कन्नौज का इत्र है न फिरोजाबाद की चूड़ियाँ। हां बेरोजगारी भत्ता है बीपीएल सूची है। मुफ्त की साड़ियाँ हैं और फ्री का लैपटॉप है।आज जो युवा शहरों की तरफ भाग रहे हैं सात हजार रुपये महीने पर अगर उन्हें अगरबत्ती उद्योग सूत कपास उद्योग मछली पालन मुर्गी पालन या छोटे छोटे ऐसे रोजगार से जोड़ा जाए जो ग्रामीण स्तर पर हों तो यही राजकीय श्रम बेकार में बैठकर जुआ ताश नहीं खेलते। जो हाथ पथरीली जमीन में गुलाब खिला देने का माद्दा रखता है उसकी भूख मेहनत की सूखी रोटी से मिटेगी जनाब, भीख में मिले मनसुरिया चावल से नहीं। हमें काम चाहिए रोजगार चाहिए। हमें हमारा वही जिला वही कस्बा चाहिए। हमें जब 'स्किल डेवलपमेंट' की जरूरत थी तो आपने खाली भाषण दिए। हमने जब रोजगार मांगा तो आपने सोने की मूर्तियां बनवायीं। जिस ग्रामीण और राजकीय श्रम का उपयोग कुटीर उद्योगों में होना था उनसे आपने जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे लगवाए।हम भूख से मरते रहे और हमारे मौत को भी दलित पिछड़ा सवर्ण की आग में जलाकर रोटियां सेंकी आप नेताओं ने।
             मैं सिकन्दर पुर या बलिया की बात नहीं कर रहा। सपा बसपा राजद भाजपा कांग्रेस की बात नहीं कर रहा। मैं बस यह कह रहा हूँ कि भारत के सभी जिले अपना अलग जनपदीय गौरव अपनी अलग अर्थव्यवस्था रखते थे। आप किसी भी जिले किसी भी कस्बे के या किसी भी पार्टी विचारधारा के हों इस चुनाव में अपने नेता से बस अपना 'जनपदीय गौरव' मांगिए। अगर नहीं, तो आज सिकन्दर पुर कस्बे के मरने की कहानी मैं लिख रहा हूँ और कल अपने कस्बे अपने जिले के मरने की कहानी आप लिख रहे होंगे....

Monday, April 18, 2016

पादुका पुराण

पिछले दिनों मंदिर के बाहर से भरत सम किसी भाई ने मुझे राम जानकर मेरी पादुका पार कर दी। निजी गुप्तचरों के लाख प्रयास के बाद भी उस पादुका ग्राही व्यक्ति का पता नहीं चल पाया। किसी आम आदमी की पादुका चोरी होना नितांत साधारण घटना है, इसलिए इस पर कोई चर्चा नहीं होती, खबर जैसा कुछ नहीं बनता।आम आदमी होना कितना महत्वहीन है,  कितना तथ्यहीन है , यह बस वही समझ सकता है जो आम आदमी है। विदीर्ण होते हृदय को सांत्वना कैसे दूं समझ में नहीं आ रहा।
      अगर आज मैं राजनीति वाले किसी पद पर होता तो पादुका की क्या कमी होती? आजकल जनता वो नाजुक नाजुक, सुंदर सुंदर जूते नेताओं पर फेंक रही है कि क्या कहने!
कल ही टीवी पर रेड एंड चीफ के सीईओ सिरी सुमेसर परसाद जी बता रहे थे कि - हमारी कंपनी के जूते इतने सॉफ्ट,कंफर्टेबल और पकड़ में मजबूत हैं कि युवा वर्ग इन्हें पहनने के लिए कम,नेताओं पर फेंकने के ज्यादा प्रयोग कर रहा है।
'आउटलुक' पत्रिका भी 'सेक्स सर्वेक्षण' जैसे कालजयी मुद्दे को छोड़कर अब इसी पर रिसर्च कर रही है कि पिछले पांच सालों में नेताओं पर किस कंपनी के जूते ज्यादा फेंके गए।
     अगर मैं साहित्यिक जगत से संबंधित होता तो 'प्रेमचंद के फटे जूते' टाईप प्रसिद्ध रचनाएँ मुझ पर लिख दी गई होतीं। और आज मैं किसी साहित्यिक अकादमी के सचिव पद का प्रबल दावेदार माना जाता। साहित्यिक साथी गण मेरे पादुका चोरी की घटना पर विह्वल होकर 'हाय असहिष्णुता-हाय असहिष्णुता' का जाप करते हुए मोदी जी से इस्तीफे की मांग कर रहे होते। और साथी कवयित्रियां 'काव्य संध्या' के आयोजन के लिए पडोसी पाकिस्तान में कोई अच्छी जमीन तलाशने के बाद इकोनॉमी क्लास के टिकट की मांग कर रही होतीं।
       इधर अगल बगल घटनाएं तेजी से घट रही हैं। सुना है गुड़गांव का नाम गुरुग्राम कर दिया गया है। हमारे गाँव के सिरी छेदीलाल जी इससे बड़े दुखी हैं। उनका मानना है कि मुझे 'जार्ज होल' कहा जाए या 'सूराख अली' रहूंगा तो चाय वाला छेदीलाल ही न। लेकिन विपक्ष में खड़े पान की पीक को 'समाजवाद' की तरह घोंट रहे मिश्रौली गांव के परधान जी का कहना है कि- बेटा हमरे गांव का नाम अगर आज मिश्रौली की जगह सैफई होता न बता देते तुमको कि नाम का फरक क्या होता है। बूझि गए न!
अब शायद छेदीलाल जी बूझ गये हैं और चुपचाप चीनी चाय अदरक और पानी का महागठबंधन तैयार कर आग पर रख रहे हैं।
                सच कहूं तो इन बातों में मेरा मन नहीं लग रहा। मेरी स्थिति गहन गिरि कानन कुञ्ज लता गुल्मों में भटक रहे राम जैसी ही है,जो हर वन प्राणियों से पूछ रहे हैं - 'तुम देखी सीता मृगनयनी'।
हालांकि मेरी पादुका बहुत नई नहीं थी फिर भी साहचर्य जनित प्रेम तो हो ही गया था।मन उसकी स्मृति में रह रह कर भावुक हो रहा है। न जाने किन कठोर पांवों के राहुल गांधी तुल्य असहनीय भार को वहन कर रहा होगा।
बहुत कीमती नहीं थी मेरी पादुका लेकिन एक जोड़ी जूते की कीमत 'धूमिल' का 'मोचीराम' ही जानता है, तभी तो उसने कहा कि -
मुझे हर वक्त यह ख्याल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं न कहीं एक 'अदद आदमी' है
जिस पर टांके पड़ते हैं
जो जूते से झांकती हुई अंगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।
            अखबार में इधर की बड़ी खबरें दिख रही हैं। कहीं भारत माता की जय का उद्घोष है जिसे खूबसूरती से वोटों में बदला जा रहा है, तो कहीं नीतीश कुमार जी संघ से आजादी चाहते हैं, तो कहीं युवाओं के दम पर अखिलेश यादव जी चुनाव का शंखनाद कर रहे हैं, तो कहीं अरबों रुपये का आई पी एल है ....और जनता वही 'अदद आदमी' है जो आज भी अंगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सह रही है।
वही 'अदद आदमी' जिसकी बात कोई नहीं करता और जो कहीं पलायन, कहीं बाढ़, कहीं सूखा, कहीं बेरोजगारी, कहीं भ्रष्टाचार और कहीं पानी के लिए मर रहा है।लेकिन अब सबकी समझ में आ रहा है कि कैसे कोई राबर्ट वाड्रा दिन पर दिन अमीर होता जा रहा है जिनकी कुल योग्यता यही है कि वो राजशाही परिवार के सदस्य हैं। और कैसे कोई होरी आज भी बैल के पगहे में लटक कर जान दे देता है। उसकी छोटी सी योग्यता यही है कि वो सैकड़ों का पेट पालने वाला अदद आदमी है। अब सबकी समझ में आ रहा है कि कैसे 'युवा वर्ग' का आह्वान करने वाले समाजवादी रथ ने अपने पहिए से सबसे ज्यादा युवाओं को ही रौंदा है।
राजनीतिक दलों को अब समझ जाना चाहिए कि उसी 'अदद आदमी' का जूता एक दिन अचानक गायब हो जाता है, और जब अंगुली की चोट छाती पर हथौड़े की तरह सहन करने से इन्कार कर देता है तो एकाएक उछल पड़ता है और कहीं भाषण पिलाते हुए मंच पर अचानक प्रकट हो जाता है। आज तो बस मेरे जूते गायब हुए हैं, जिस दिन सबके जूते गायब होंगे, उस दिन अंगुली की चोट हथौड़े की तरह सहने वाला हिमालय की तरह चोट करेगा।
क्योंकि - "असल बात तो यह है कि
वह चाहे जो है
जैसा है जहाँ कहीं है
आजकल कोई आदमी जूते की नाप से बाहर नहीं है"
इसलिए समय आ गया है कि ढूंढिए - मेरे 'जूते' नहीं! वही 'अदद आदमी'। जिसकी बात कोई नहीं करता....

असित कुमार मिश्र
बलिया

Friday, April 8, 2016

ढाई आखर प्रेम का....

सुश्री गीताली जी की गणना तिनसुकिया (असम) के प्रतिष्ठित अध्यापकों में होती है। उन्होंने शिक्षा पर कुछ लिखने का आदेश दिया है।बडा अच्छा लगा जानकर कि गोरखपुर में तो बाकायदा अध्यापकों ने टीम बना रखी है कि कैसे शिक्षा प्रभावी रुप में दी जाए जिनमें बहन प्रीति गुप्ता और रिवेश प्रताप सिंह सर शामिल हैं।
           शिक्षा को लेकर पूरा ढांचा ही उल्टा है।पहले एक कहानी सुना लूं -आठ दस साल पुरानी बात है गाजीपुर के एक पंडीजी इलाहाबाद में सिविल की तैयारी करते थे। कभी मेन्स में अटकते कभी इन्टरव्यू में। दोस्तों ने सलाह दी कि- जा के कहीं से बी एड् मार लो। नहीं तो बियाह भी नहीं होगा।
पंडीजी औसत जजमानी वाले घर से थे। टेस्ट में सरकारी कालेज मिल गया तो कम पैसे में ही हो गया। और संयोग कि तुरंत नौकरी मिल गई बलिया जिले में। ज्वॉइन करने के बाद पंडीजी ने अपना दिमाग लगाया।रात को स्कूल में ही सोते थे। सामान के नाम पर एक तकिया चटाई और दो तीन कपड़े। स्कूल के बाद उन्हीं बच्चों को कोचिंग पढाने लगे। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब उन्हीं बच्चों का केन्द्रीय विद्यालय नवोदय विद्यालय सी एच एस आदि में चयन होने लगा तो गांव के किसी व्यक्ति ने अपने घर का बाहरी कमरा पंडीजी को आफर किया। कोई चौकी लगा गया कोई ताजी दही दे जाता।
इधर गांव के कुछ सम्मानित लोगों ने पंडीजी से कहा कि हमारे बच्चों को भी पढाइए।
पंडीजी ने कहा कि हम केवल सरकारी स्कूलों के बच्चों को ही पढाते हैं।
सम्मानित लोगों ने अप्लीकेशन डाल दिया कि हमारे स्कूल का मास्टर मन का मालिक है। बारह बजे आता है छह बजे तक पढाता है। मतलब कोई टाईम टेबल नहीं है। जांच बैठ गई एक दिन बेसिक शिक्षा अधिकारी छह बजे पहुंचे तो देखा कि सच में प्रायमरी स्कूल के बरामदे में क्लास चल रही है। खिसिया कर पंडीजी की ओर आए और चौंक गए। अचानक मुंह से निकला - अरे पंडितवा तूं ईहां कैसे?
पंडीजी भी भावुक हुए अपने रूममेट को अधिकारी के रुप में देखकर। दौड़ कर लिपट गए। भरत मिलाप के बाद घर ले गए। रास्ते में किसी से बोल दिया कि ए चाची पानी भेजवाइए। किसी से कह दिया कि खाना भेजवाइए। कोई दही लेकर आया कोई घी में बना हलुवा।
अधिकारी साहब आश्चर्य चकित होकर एक लाईन लिख कर भेज दिए कि पंडितवा तो यूपी का आनंद कुमार है।
छब्बीस जनवरी को जिलाधिकारी ने पांच सौ रुपए और अंगवस्त्रम् से सम्मानित भी कर दिया। लेकिन आलोचकों ने फिर अप्लीकेशन डाला। इस बार न पहले वाले बेसिक शिक्षा अधिकारी थे न जिलाधिकारी। पंडितजी सस्पेंड कर दिए गए। थोड़ा बहुत बवाल मचा। गांव वाले धरना प्रदर्शन करने लगे। अंततः पंडीजी बहाल हुए।
         हो सकता है यह कहानी लग रही हो।बहुत शार्टकट में सुनाई है कहानी। पंडीजी आज भी सोनभद्र में तैनात हैं और बेसिक शिक्षा अधिकारी लोग शिक्षा में सुधार कैसे हो यह सीखने आते हैं उनसे। सस्पेंड और जांच से ऊपर की चीज हैं वो पंडीजी।
अब बात करता हूं वर्तमान शिक्षा की। लोग प्राथमिक विद्यालय में जूनियर विद्यालय में नियुक्त होकर सिविल की तैयारी करते रहते हैं।साथी अध्यापक गण गर्व से बताते हैं कि जो एस डी एम बना है वो मेरे विद्यालय में पढाता था हमारे साथ...। इसीलिये मैंने कहा कि शिक्षा का ढांचा उल्टा है। व्यक्ति ज्वॉइन करने के बाद भी शिक्षक नहीं बन पाया वह मन से तो एस डी एम है। पढाएगा क्या? शिक्षक सुनना तो उसे गाली जैसा लगता है वह शिक्षक होकर भी नहीं है। ये बस एक ऐसे प्लेटफॉर्म पर हैं जहां से उन्हें बीस हजार रुपये मिल रहे हैं और तैयारी का समय भी। मौका मिला कि बत्ती वाली गाड़ी पर सवार होकर निकल गए और अध्यापक वाली कुर्सी फिर किसी भावी एस डी एम का इंतजार करने लगी।
कुछ तो चालीस की उम्र तक तैयारी करते रहते हैं। बाकी के बीस साल इसी फ्रस्ट्रेशन में निकल जाते हैं कि साला मैं एस डी एम कैसे नहीं बना? अब सोचने वाली बात है कि वो पढाए क्या होंगे जीवन में।
दरअसल हमने अपना आदर्श माना है सर्वपल्ली राधाकृष्णन को। जो अध्यापक के पद से राष्ट्रपति पद तक पहुंचे। निश्चित ही शिक्षा संबंधी उनके विचार अमूल्य हैं और उनका योगदान अतुलनीय। लेकिन यह तो प्रतियोगिता हुई। बैंक का चपरासी भी मैनेजर बनने के लिए लालायित है। लेक्चरर, असिस्टेंट प्रोफेसर बनना चाहता है। असिस्टेंट जो है वो प्रोफेसर बनने के लिए व्यग्र है। जो प्रोफेसर हैं वो विभागाध्यक्ष, जो डीन हैं वो कुलपति और जो कुलपति है वह राष्ट्रपति बनना चाहता है। मैं पूछता हूं अध्यापक कहां गया? शिक्षक कहां गया? शिक्षक पद की गरिमा तो तब होती न जब कोई राष्ट्रपति कहता कि भाई मैं अध्यापक बन कर खुश रहूंगा। मुझे उसी पद पर तैनात करो।
गाजीपुर वाले पंडीजी के पास पर्याप्त अवसर था कि वो फिर से मनोयोग से सिविल में लग जाते लेकिन उन्होंने शिक्षक का पद नहीं छोड़ा।सबसे पहले तो शिक्षक को स्वयं प्रतियोगिता से मुक्त होना है। वकील साहब कार से चलते हैं और हम नहीं। ऐसी सोच एकदम नहीं चलेगी।
दूसरी बात! अक्सर मैं अधिकारियों के साथ स्कूलों में जाता रहता हूँ। किसी कमरे में दस बच्चे होते किसी में पंद्रह तो कोई क्लास शून्य।
मैं पूछता हूं कि - सर बच्चे क्यों नहीं आए?
अध्यापकों का जवाब होता है - हम क्या करें घर से उठा कर लाएं बच्चों को?
मैं चुप हो जाता हूँ। सच भी है भाई! जब सैंया कोतवाल हैं तो क्या डरना?
मैं अधिकारी नहीं हूँ सवाल करने का हक नहीं है। नहीं तो पूछता कि जब बच्चे ही नहीं हैं तो आपकी क्या आवश्यकता है यहां? आप भी घर जाइए। दीवारों और कमरों को पढाने के लिए तो आपकी नियुक्ति हुई नहीं है।
उपस्थिति की समस्या सभी सरकारी स्कूलों में है जबकि प्राईवेट स्कूल एकदम भरे हुए। चलिए एक बात पूछता हूँ - नवरात्रि का समय है अंगूर आ गये हैं बाजार में। एक दुकान में एकदम ताजा अंगूर है और दुकानदार यही सोचकर चुप है कि मेरा तो ताजा है ही मुझे क्या प्रचार करना?
दूसरी ओर बासी अंगूर वाला मिनट मिनट पर चिल्ला रहा है - लीजिए भैया अंगूर। अमेरिका का ताजा ताजा अंगूर....। अब आप बताइए किसके अंगूर बिकने की संभावना ज्यादा है? जो चुप है उसका या जो चिल्ला रहा है उसका?
निश्चित ही जो दिखता है वही बिकता है। जो चिल्ला रहा है वह सफल व्यापारी है। इसी तरह सरकारी स्कूलों के अध्यापक एम ए बीएड पी एचडी नेट टेट पता नहीं क्या क्या हैं। गजब के योग्य हैं लेकिन बेच नहीं पा रहे खुद को। बता ही नहीं पा रहे अभिभावकों को कि मैं पढा सकता हूं।
कमी यहां है - जैसे ही छुट्टी हुई हेल्मेट लगाया स्कूल से गायब। अध्यापिकाएं भी हैं स्कार्फ बांधा छतरी निकाली गायब। कितने लोग हैं जो अपने क्लास के बच्चे के घर जाते हैं उनकी टुटही चारपाई पर बैठ कर कहते हैं कि - ए चाची तुम्हारा लईका न बहुत तेज है रे दरोगा बनेगा। तोर गरीबी दूर कर देगा आंखी किरिया।
कितने लोग हैं जो रास्ते में गांव के लोगों को नमस्ते भैया नमस्ते बाबू नमस्ते चाचा कहते हैं? कितनी अध्यापिकाएं हैं जो रास्ते में किसी औरत के सिर पर सहारा देकर बोझा उठा सकती हैं?
क्यों कहेंगे भाई! अट्ठाईस सौ की पे स्केल, स्विफ्ट गाड़ी, एप्पल मोबाइल है न!
लेकिन आप भरोसा कीजिए। जैसे ही गांव के टच में आप आए, आपकी उपस्थिति बढ जाएगी। जैसे ही आपने गांव के आते जाते लडकों को नमस्ते भैया कहना शुरू किया दस दिन बाद वही लडके पहले ही आपको नमस्ते दीदी नमस्ते मैडम कहने लगेंगे। आज भी कुछ नहीं बदला भगवान् की तरह पूजा होगी आपकी, लेकिन पहले भगवान् बनना होगा।
हम लोग सरस्वती शिशु मंदिर में पढाते थे। हफ्ते में एक दिन पांच बच्चे के घर तय था जाना। महीने में पांच अभिभावकों को पोस्टकार्ड लिखते थे। पांच को फोन करते थे कि आपका बच्चा हिंदी में ठीक है। उसका बटन टूटा हुआ था कल। बाल बढ गया है उसका आदि आदि।एडमिशन के टाईम माईक वाली गाड़ी लेकर घूमते थे। विद्यालय के बैनर पोस्टर चिपकाते थे। अभिभावकों से मिलते थे। कोई तीन किलोमीटर दूर ताल में गेंहू काटता था तो वहां भी पहुंच जाते थे। तब जाकर उपस्थिति शत प्रतिशत होती थी।
अक्सर मैं हैरान रह जाता हूँ सुनकर कि बच्चों को पीटने पर अभिभावकों ने अध्यापक को पीटा। कहीं जेल भी होती है अध्यापक को। अगर मुझ पर यह नियम लगता तो यह लेख भी जेल से ही लिख रहा होता। चलिए आप से ही पूछता हूँ - आप क्लास में मार नहीं खाते थे? घर आकर कहते भी होंगे। लेकिन मां बाप भाई बहन की प्रतिक्रिया होती थी कि - तुम ही कुछ किए होगे।
विचार कीजिए इस पर। पहले अभिभावक अध्यापक पर भरोसा करता था। और आज यह भरोसा एकदम नहीं है। मैं यह नहीं कह रहा कि भरोसा बना कर पीट ही दीजिये। अपना बदला ले लीजिए। मैं बस यह कह रहा हूँ कि अभिभावकों के टच में रहिए। उन्हें बताइए कि आपका बेटा बेटी मेरा भी बेटा-बेटी है। मां बाप रोज पीटते हैं कहां होता है एफआईआर? तो बिना मां बाप बने मारेंगे बच्चों को तो यही होगा। आखिर कोई अनजान व्यक्ति कैसे मार सकता है मेरे बच्चे को? वही अनजान हैं आप उस अभिभावक के लिए।
एक बहुत छोटी सी बात कहूंगा - जहां कोचिंग पढाता हूँ वहां भीड़ संभालनी मुश्किल होती है। खिड़की के पीछे से लोग पढते हैं। सिफारिश कराते हैं। अब मेरी ही नियुक्ति वहीं बगल के इंटर कालेज में हो जाए तो क्या वही भीड़ लगेगी?
नहीं लगेगी। क्योंकि मैं अब बदल गया हूँ। अब मैं सरकारी नौकरी में हूँ मतलब आराम हो गया मुझे। तो जब ऐसी ही सोच है तो फिर मैं ही रहूंगा और दीवारें रहेंगी, बच्चे नहीं रहेंगे। मेरे क्लास में उपस्थिति कम है तो सीधे-सीधे मैं जिम्मेदार हूँ कोई और नहीं।
अगली बात- कुछ अध्यापक अध्यापिकाओं के घर जाना हुआ। गजब का साफ सुथरा घर। रंगी दीवारें, झालर मैट पेंटिंग पता नहीं क्या क्या। और कभी कभी उनके स्कूल भी जाना होता है। गजब की अव्यवस्था। बिखरी किताबें अनियंत्रित बच्चे। गंदी दीवारें।
मैं समझ नहीं पाता यह वही अध्यापक हैं जिनके घर मैं गया था। इतना दोहरापन क्यों भाई? अगर आप साफ सुथरे हैं तो हर जगह होंगे न? या अगर गंदे ही हुए तो फिर मुझे किसके घर ले गए थे अपना बता कर?
यह तो बहुत छोटी सी बात है। माना कि सरकार पैसा नहीं देती तो आप पांच अध्यापक मिल कर स्कूल को रंगवा नहीं सकते? लाईन से फूल क्यारियां नहीं बनवा सकते? स्कूल में ब्रेंच सनमाइका बोर्ड और बीस तीस अच्छी तस्वीरें सूक्तियां नहीं लगा सकते?
बस एक सत्र में ऐसा कीजिए अगर परिवर्तन नहीं होता है तो क्या होगा बहुत होगा तो आपके अधिकतम पांच हजार रुपये नुकसान हो जाएंगे यही न! सोच लीजिएगा कि असित कुमार मिश्र को दान में दे दिया इतना पैसा।
असित कुमार मिश्र
बलिया