Tuesday, April 19, 2016

एक कस्बे की मृत्यु गाथा

थोड़ा अजीब है शीर्षक लेकिन यही ठीक लगा इस कहानी के लिए। हाँ तो बलिया जिले में आज से मात्र बीस पच्चीस साल पहले एक कस्बा हुआ करता था सिकन्दर पुर नाम का। पुरखे पुरनिये बताते थे कि सिकन्दर लोदी का बसाया कस्बा है यह। जो भी हो सिकन्दर पुर बस तीन चीजों के लिए जाना जाता था गुलाब शकरी, गुलाब जल और गुलाबकंद। बांग्लादेश फारस ओमान पाकिस्तान पता नहीं कहां कहां तक जाती थी इस कस्बे की बनी वस्तुएं।
थोड़ा अंदर ले चलता हूं। वो जो वेलेंटाइन डे वाला गुलाब देखते हैं न आप वही गुलाब यहां मीलों दूर तक गुलबिया रंगत लिए फैला रहता था खेतों में। गुलाब की खासियत है कि खिलने से बिखर जाने तक न उसकी मुहब्बत में कमी आती है न कीमत में।गुलाब की खेती मेहनत का काम है। किसान खेतों में उगा कर उसे चालीस रुपये किलो से लेकर पचास रुपए किलो तक सट्टी पर (बिचौलिये के यहां) बेचता था।एक सट्टी पर एक दिन में लगभग दो से चार क्विंटल गुलाब आते थे।  बिचौलिया उसे अस्सी रुपये किलो माली को बेचता था या बिजनेस वालों को। यहीं से ताजा गुलाब माला मंडप आदि आयोजनों के लिए जाता था। अगर गुलाब दो दिन नहीं बिका तो उसका गुलाब जल बन जाएगा अगर चार दिन नहीं बिका तो गुलाब शकरी अगर आठ दिन नहीं बिका तो गुलाब कंद। उसके बाद भी बच गया तो कश्मीरी शमामा अतरेआइशा खस जैसा इत्र बन जाता था या अगरबत्तियां। मतलब एकदम कागज की तरह सूखा गुलाब भी कुछ न कुछ देकर ही जाता था। सैकड़ों हिंदू मुसलमान इस फूलों के कारोबार से जुड़े थे।
            एक छोटा सा काम और होता था इस कस्बे में बिंदी बनाने का। जो शिल्पा छाप बिंदी आप बाजार में देखते हैं वो यहाँ बीस रुपए सैकड़े के हिसाब से बनती थीं और कोलकाता बनारस दिल्ली तक जाकर बीस रुपए में एक मिलती थी। मैं आपको कागजी आंकड़े नहीं बता रहा। डाबर का रोज वाटर सौ एम एल चालीस रुपये का मिल रहा है और यहां आज भी गुलाब जल एक सौ साठ रूपये लीटर में एकदम शुद्ध मिलता है.... लेकिन आज इसी कस्बे ने सामूहिक आत्महत्या कर ली। अब गुलाब गमलों में दिखते हैं और गुलाब शकरी चमकीले कागजों में धरोहर की तरह कैद हो चुके हैं।
                  आज स्विट्जरलैंड में रहने वाले मेरे एक कवि मित्र ने सवाल किया है कि आखिर यूपी बिहार से पलायन भूख बेरोजगारी क्यों नहीं जा रही?
पहले तो यह बता दूं कि यह बड़ा विषय है एक पन्ने में नहीं लिखा जा सकता। और दूसरी बात मेरी जानकारी सीमित है इस पर तो हमारे प्रशासकों राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए। मैं बहुत तो जिले स्तर की बात कर सकता हूं। और मेरी समझ से हर जिले की अपनी अर्थव्यवस्था थी जैसे बनारस बनारसी साड़ियों मऊ मऊवाली साड़ियों अलीगढ़ ताले फिरोजाबाद चूड़ियों और कन्नौज इत्र के लिए प्रसिद्ध था।यूपी बिहार के लगभग सभी जिले अपने-अपने छोटे व्यवसायों के लिए जाना जाता था। पूंजी का प्रवाह दोनों ओर से होता था। आज मुझे एक रुपये के शैंपू या दस हजार के रेफ्रिजरेटर के लिए शहर जाना पड़ता है लेकिन सालों बीत गए और शहर कभी मेरे पास नहीं आया दूध खरीदने क्योंकि अमूल का दूध शहर में है। कभी शहर छाछ खरीदने नहीं आता गांव में क्योंकि पैक्ड छाछ भी शहर में है... मतलब पूंजी का प्रवाह एकतरफा और तेजी से हो रहा है। आप पूछते हैं गांव क्यों मर रहा है? इसीलिए तो मर रहा है।
जिन हाथों को आज शासन एक हज़ार रुपए का बेरोजगारी भत्ता दे रही थी वही हाथ कल गुलाब खिलाते थे या चीनी मिल में गन्ना पेरते थे। आज न गुलाब है न गन्ने। इसीलिये पलायन हो रहा है। भोजपुरी क्षेत्र में बूढ़ी महिलाएं इतनी कर्मठी होती हैं कि मरने के दिन तक काम करती हैं। उनके कर्मठी हाथों में वृद्धा पेंशन का तीन सौ रुपए का चेक धरा दिया गया। जो कांपते हाथ बिंदिया टांकते थे उन्हें वोट बैंक ने और गलत व्यापारिक नीतियों ने बीपीएल और एपीएल हाथों में बदल दिया।
          उत्तर प्रदेश में चुनाव आने वाले हैं। हर पार्टी हर नेता विकास का वादा करेगा। कोई महीने में चालीस किलो अनाज की भीख देगा और कोई कंप्यूटर लैपटॉप साड़ी और शराब का नजराना। लेकिन रोजगार की बात कोई नहीं करता। सपा बसपा ने फेर बदल कर खोखला कर दिया पूरे प्रदेश को।सिकन्दर पुर कस्बे ने ही आत्महत्या नहीं की। पूरे प्रदेश ने सामूहिक आत्महत्या की है। आज न बनारसी साड़ियाँ हैं न मऊवाली। न अलीगढ़ के ताले हैं न कनपुरिया जूते। न कन्नौज का इत्र है न फिरोजाबाद की चूड़ियाँ। हां बेरोजगारी भत्ता है बीपीएल सूची है। मुफ्त की साड़ियाँ हैं और फ्री का लैपटॉप है।आज जो युवा शहरों की तरफ भाग रहे हैं सात हजार रुपये महीने पर अगर उन्हें अगरबत्ती उद्योग सूत कपास उद्योग मछली पालन मुर्गी पालन या छोटे छोटे ऐसे रोजगार से जोड़ा जाए जो ग्रामीण स्तर पर हों तो यही राजकीय श्रम बेकार में बैठकर जुआ ताश नहीं खेलते। जो हाथ पथरीली जमीन में गुलाब खिला देने का माद्दा रखता है उसकी भूख मेहनत की सूखी रोटी से मिटेगी जनाब, भीख में मिले मनसुरिया चावल से नहीं। हमें काम चाहिए रोजगार चाहिए। हमें हमारा वही जिला वही कस्बा चाहिए। हमें जब 'स्किल डेवलपमेंट' की जरूरत थी तो आपने खाली भाषण दिए। हमने जब रोजगार मांगा तो आपने सोने की मूर्तियां बनवायीं। जिस ग्रामीण और राजकीय श्रम का उपयोग कुटीर उद्योगों में होना था उनसे आपने जिंदाबाद मुर्दाबाद के नारे लगवाए।हम भूख से मरते रहे और हमारे मौत को भी दलित पिछड़ा सवर्ण की आग में जलाकर रोटियां सेंकी आप नेताओं ने।
             मैं सिकन्दर पुर या बलिया की बात नहीं कर रहा। सपा बसपा राजद भाजपा कांग्रेस की बात नहीं कर रहा। मैं बस यह कह रहा हूँ कि भारत के सभी जिले अपना अलग जनपदीय गौरव अपनी अलग अर्थव्यवस्था रखते थे। आप किसी भी जिले किसी भी कस्बे के या किसी भी पार्टी विचारधारा के हों इस चुनाव में अपने नेता से बस अपना 'जनपदीय गौरव' मांगिए। अगर नहीं, तो आज सिकन्दर पुर कस्बे के मरने की कहानी मैं लिख रहा हूँ और कल अपने कस्बे अपने जिले के मरने की कहानी आप लिख रहे होंगे....

1 comment:

  1. yeh jameenee haqiqat hain !!! Rozgaar ke badle berozgaari bhatta ye kaha ka nyaya hain :(

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