Monday, November 28, 2016

तन मोरा अदहन मन मोरा चाउर....

इधर दिन, दिन पर दिन समाजवाद की तरह सिमटता जा रहा है,और रातें तो कमबख्त वामपंथ की तरह बदनाम हैं ही। इसलिए हम शाम की चर्चा करने लगे हैं आजकल। हालांकि शाम को भी शायरों ने कहीं का नहीं छोड़ा। ऐसे ही परसों की शाम अचानक प्रेमप्रकाश सर का फोन आया था उन्होंने बताया कि देवरिया आ रहा हूँ 'पूरब की माटी' वाले कार्यक्रम में।प्रेमप्रकाश सर बड़े संपादक हैं। बड़ा संपादक वह होता है जो तय कर ले कि भले ही पत्रिका में दस बीस पन्ने सादे रह जाएं, लेकिन बबुआ तुमको तो नहिए छापेंगे। इसीलिये युग चाहे भारतेन्दु का रहा हो या द्विवेदी जी का संपादकों और लेखकों में तलवारें चलती रहीं। वो तो भला हो साहित्य की कोमलता का कि ये तलवारें शाब्दिक ही होती हैं वर्ना हिंदी के लेखक संपादक 'मोहि पे हंसहुँ कि हंसहुँ कुम्हारा' की तर्ज पर कहीं न कहीं से दिव्यांग ही दिखते। हमने आश्चर्य से पूछा कि सर इस टाइल्स और संगमरमर के जमाने में भी माटी जिंदा है?
सर ने कहा - असित मालिनी अवस्थी को कभी सुना नहीं न! सुन लो एकबार।फिर बात होगी।
प्रस्ताव बुरा नहीं था लेकिन आदतन विरोध किया- श्रोता बनकर क्यों आऊं वक्ता बनकर क्यों नहीं आ सकता?
सर ने कहा - असित श्रोता बनना कठिन है वक्ता बनना आसान...।
वाह! क्या गजब की बात कही थी सर ने।मन ही मन प्रेम सर के कमलवत चरणों, चरणों पर चढ़े जूते - मोजे तक को प्रणाम किया। और तय किया कि इस कार्यक्रम में विशुद्ध श्रोता बनकर चलना है।
अब समस्या आई कि बलिया से देवरिया की इस यात्रा में सहचर किसे बनाया जाय ? अजीब विडंबना है 'जीवन-यात्रा' में सैकड़ों लोग शामिल होते हैं लेकिन 'माटी-यात्रा' में...। खैर गाँव के ही हिंदी-अध्यापक अशोक जी सहचर सिद्ध हुए। तय हुआ कि देवरिया में मात्र अध्यापक भाई शैलेंद्र द्विवेदी जी को सूचित किया जाए। चूंकि मैं श्रोता के रूप में आ रहा था इसलिए अन्य मित्रों को तकलीफ न दे सका।
       बलिया की सीमा पार करते ही मन बिदा हो रही बेटी की तरह बोझिल हो जाता है। लेकिन देवरिया पहुंचने की खुशी इस दुख पर भारी पड़ी। देवरिया,  देवरहवा बाबा की भूमि है, बाबा राघवदास की भूमि है। देवरिया कुट्टीचातन 'अज्ञेय' की भूमि है। मैंने मन ही मन दोनों देवर्षियों को प्रणाम किया। तथा प्रयोगवादी कवि अज्ञेय का स्मरण। अज्ञेय जी ने तीन शादियाँ की थीं संतोषी जी से, कपिला मलिक से फिर प्रसिद्ध उद्योगपति डालमिया की पुत्री इला डालमिया से।और इधर एक हमारी जिंदगी है एकदम से 'पंत' टाइप।
देवरिया पहुँचते ही पहली नजर पड़ी दर्शक-दीर्घा में पंडित तारकेश्वर मिश्र 'राही जी' पर। भोजपुरी में लव कुश खंडकाव्य लिखने वाले पंडित जी जिन्हें प्रोफेसर नामवर सिंह ने 'भोजपुरी का तुलसी' कहा है। मैंने पैर छूकर कहा - गुरुजी प्रणाम। पंडित जी ने कहा - ओ हो हो हो। आवऽ आवऽ बइठऽ। का हालचाल बा?
हम लोग भोजपुरी में एक दो कहानियाँ - गीत लिखकर सीधे भिखारी ठाकुर से अपनी तुलना करने लगते हैं और यह भोजपुरी का वाहक इतना विनम्र इतनी सहजता! कहाँ से आई? जैसे प्रेमप्रकाश सर ने कानों में कहा हो - असित माटी से जीवनी लेना। मैंने देखा पंडित जी दोनों पैर माटी पर टिकाए मुझसे बात कर रहे हैं। अच्छा तो माटी का यह गुण है और पंडित जी माटी से जुड़े हैं।
         दूसरे दौर में प्रेम सर से मिलना हुआ। बड़े प्रेम से मिलते हैं प्रेम सर एकदम बाँहों में भर लेते हैं जैसे "रेलिया बैरन पिया को लियो आए रे" और प्लेटफॉर्म पर उतरते ही विरहिणी नायिका, नायक को बाँहों में भर ले। सच कहूँ तो प्रेम सर से मिलने के बाद ही जाना जा सकता है कि चिर युवा श्री सलमान खान जी का नाम फिल्मों में अक्सर प्रेम ही क्यों होता है।
इधर दर्शक दीर्घा में जिलाधिकारी महोदया अनीता श्रीवास्तव जी भी आ गईं थीं और मंच पर कोई मखमली आवाज तैर रही थी - ऐ मेरे वतन के लोगों... गजब की जादुई और सम्मोहित करने वाली आवाज थी उन गायिका की। लेकिन डेढ़ घंटे बाद भी मालिनी अवस्थी जी की कोई सूचना नहीं मिल रही थी। हार थक कर मैंने फोन किया लेकिन मालिनी अवस्थी जी ने फोन उठाया ही नहीं।
मन ही मन तय कर लिया कि कल से उन्हें मैसेंजर और व्हाट्स ऐप पर 'हर-हर महादेव, जय महाकाल, सुप्रभात, वाले मैसेजेज भेज-भेज कर परेशान करुंगा। लेकिन दूसरी बार तुरंत फोन उठा मैंने गुस्से में कहा - नाम भी बताना पड़ेगा? अब तो फोन भी नहीं उठता!
उधर से आवाज आई- अरे ना हो। मुंबई से आवत बानीं देवरिया। सुनाइल हऽ ना। तूं बतावऽ? का हालचाल बा?
मैंने कहा कि - दीदी मैं भी आया हूँ देवरिया।
मालिनी दीदी ने कहा - अच्छा आयोजकों को बताया क्यों नहीं कि तुम आ रहे हो? कहाँ हो? बाहर बहुत ठंड है स्वेटर पहने हो न? कार्यक्रम के बाद खाना साथ ही खाया जाएगा ठीक न?
मुझे समझ में नहीं आया कि कहूँ क्या? मैंने कहा - दीदी आज मैं श्रोता हूँ बस आपका। इधर प्रेम सर हँस रहे थे - बेटा माटी है यह। माँ की तरह ही ख्याल रखेगी अपने छोटे से छोटे बच्चों का।
      धीरे-धीरे संगीत संध्या का कार्यक्रम चरम पर पहुंचा जब मालिनी दीदी ने प्रसंग छेड़ा - एक चरवाहा दिन भर चार सूखी रोटियाँ खाकर दिन बिता रहा है जंगल से लौटते समय एक यौवनावस्था नायिका को देखकर शरारती हो उठता है और कहता है -
भुखिया के मारी विरहा बिसरिगा भूलि गई कजरी कबीर।
देखि के गोरी के मोहनी मुरतिया उठे ला करेजवा में पीर।।
नायिका भी कम चतुर और रसिक नहीं है वो बड़ी अदा से कहती है - मुझे क्या तुम बिना खाए पिए रहो। मैंने अपने प्रिय के भोजन के लिए ऐसा उपाय किया है जो कोई सोच भी नहीं सकता-
तन मोरा अदहन, मन मोरा चाउर
नयनवां मूँग के दाल
अपने बलम के जेवना जेंवइबे बिनु अदहन बिनु आग।
यही लोकगीत है। जिसका भाव समर्पण है और भूख प्रेम। इस अवस्था में नायक, नायक नहीं होता नायिका, नायिका नहीं होती। आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं होता। कोई द्वैत नहीं बस एक, एकाकार, एकमेव। तन ही अदहन बन जाता है और मन ही चावल। जब तक 'लाली' को खोजने वाला 'लाल' खुद लाली न हो जाए, तब तक समर्पण कैसा! मुहब्बत कैसी! चाहना कैसी!
मैंने देखा मालिनी दीदी मंच से उतर कर दर्शक दीर्घा में आ गई हैं गाते-गाते। माथे की टिकुली कहीं गिर गई है, हाथ लय के उतार-चढ़ाव पर काँप रहे हैं...
अब कोई अंतर ही नहीं है मंच और दर्शक दीर्घा में। नायक-नायिका में आत्मा परमात्मा में। लोक ही मंच बन गया है गायिका श्रोता बन गई है श्रोता गायक। जरुर ऐसी ही परिस्थितियों में तुलसी ने रचा होगा - सियाराममय सब जग जानी। पूरा जगत ही सियाराममय हो गया है पूरी सभा ही मालिनी अवस्थी बन गई है और मालिनी अवस्थी ही पूरी सभा। मैंने बगल में बैठे त्रिपाठी सूर्य प्रकाश सर को देखा फिर प्रेम सर को देखा। दोनों लोग जैसे सम्मोहित! यही क्या सभी सम्मोहित।
मैंने प्रेम सर से पूछा - सर क्या है यह?
प्रेम सर ने कहा - माटी। यही तो है माटी जो हमें जोड़े रखती है लोक से लोकगीत से लोकमंच से और आखिर में लोकमंगल से।
           अंत में पुष्कर भैया दिखे। एकदम सद्यस्नात नायक की तरह (जब सद्यस्नात नायिका हो सकती है तो नायक क्यों नहीं) गोरे इतने कि फोटो में उतनी जगह सफेद ही आए जितने में भइया खड़े हो जाएं। देखते ही बोले - अरे तुम कहाँ थे असित? मेरे मुँह से निकला मंच पर... नहीं नहीं दर्शक दीर्घा में। खैर दोनों तो एक ही है।
प्रेम सर हँस रहे हैं - लो बेटा चढ़ गया है रंग माटी का।
सीढ़ियाँ उतरते ही भीड़ ने घेर लिया है अपनी गायिका को। कोई फोटो कोई आटोग्राफ कोई कुछ। सबसे मिलने जुलने के क्रम में भी मेरा ख्याल अपनी जगह। मुझे दिखा कर किसी से कहा - उसे गाड़ी में बैठाकर मेरे साथ ले चलना।
आखिरी मुलाकात जिसे व्यक्तिगत कहना ही ठीक होगा।संगमरमरी फर्श वाले मंहगे से कमरे में एक तरफ बलिया के पंडित तारकेश्वर मिश्र राही जी दूसरी तरफ मैं और बलिया के बीच में मालिनी दीदी। राही जी कोई गीत सुना रहे थे हम सभी मंत्रमुग्ध सुन रहे थे। राही जी को विदा करते हुए मालिनी दीदी ने झुककर उनके पाँव की माटी को छुआ माथे से लगाया।यह एक कलाकार के द्वारा कलाकार का सम्मान है। यह एक तरफ पिता जैसे होने का मान है तो दूसरी तरफ़ पुत्री जैसी होने का गौरव। और बीच में मैं सोच रहा हूँ कि क्या हमारी पीढ़ी पाँव की इस माटी को माथे पर लगा सकेगी? या हमारे हिस्से में टाइल्स और संगमरमर ही आएंगे?
असित कुमार मिश्र
बलिया

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