Tuesday, February 21, 2017

मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए!

मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए...

आजकल शहरों, कस्बों और गाँवों की गलियों में दौड़ रही चमचमाती गाड़ियों में बज रहे बाजारू नारों ने बलिया और बनारस को ही नहीं पूरे फेसबुक व्हाट्स ऐप से लेकर हर घर-आँगन तक को ढंक लिया है। राजनीतिक चालों घातों - प्रतिघातों के इस समय में प्लेटो,अरस्तू, मैकियावेली, जाॅन, लाॅक, अरविंदो और गाँधी के राजनीतिक विचारों पर एक स्मार्ट फोन या फिर एक पायल भी भारी पड़ सकती है। बाहुबलियों की द्यूत सभा में राजनीति रुपी द्रौपदी का चीरहरण रोज होता है। यही नहीं इंसान की बस्तियों में अब कोई इंसान भी नहीं रहता। सामने दिख रहा चेहरा या तो भाजपाई होगा या कांग्रेसी। समाजवादी होगा या बसपाई। परिचय के क्रम में पहले नाम नहीं पूछा जाता। यह पूछा जाता है कि आपके यहाँ से कौन सी पार्टी जीत रही है? बड़े अजीब खौफनाक माहौल में जी रहे हैं हम। जहाँ भरोसा किताबी, रिश्ते हिसाबी, जीवन शैली नवाबी और बाल खिजाबी होकर रह गए हैं।मौसम भी अब बारिश का नहीं होता, पतझड़ का नहीं होता, बस चुनाव का होता है। जहाँ देखिए तनाव, द्वेष, जीत हार हिंदू मुसलमान जाति संप्रदाय के चर्चे। अखबार से लेकर टीवी तक फेसबुक से लेकर चाय के चौपाल तक बस एक ही मुद्दा - पार्टी चुनाव।
दोष किसी और का नहीं है, हमारी आँखों का है। हमारी आँखों को वही दिखाई दे रहा है जो सियासत हमें दिखा रही है। हमारे कानों को सुनाई भी वही देता है, जो राजनीति के माहिर खिलाड़ी हमें सुनाना चाहते हैं।
          चलिए! जब चारों ओर वादों इरादों नारों विकास से लेकर कब्रिस्तान - श्मशान, गदहे-घोड़ों तक की चर्चा हो ही रही है,तो हम भी बता ही दें कि इसी चुनावी माहौल में हमारा भी प्रत्याशी मैदान में है। हर विधानसभा क्षेत्र में गया भी है लेकिन अफसोस कहीं भी किसी ईवीएम मशीन में उसका कोई नाम नहीं, कोई चिह्न नहीं। लेकिन लड़ रहा है वो, अपने पूरे शवाब और जोश-ओ-ख़रोश के साथ।जी हाँ! पेड़ों पर नई निकलने वाली कोंपलों के 'पोस्टर्स' लेकर आया है वो, और सरसों के खेत में फैली पियरी रंगत उसी के तो हैं।सुबह की पहली किरन में आलस भर देने वाला निगोड़ा वही है। वही है, जो शराब नहीं बाँटता लेकिन जीवन में मादकता भर देता है। पायल नहीं बाँटता लेकिन अपनी खनक से वो नई दुलहिन को भी लजा देता है। चिड़ियों की चहचहाहट उसके नारे हैं, और जीवन में खुशियाँ लाना उसके वादे।
बसंत ही नाम है उसका। ढूंढिए! आपके दिल के विधानसभा क्षेत्र में 'बसंत' भी आया है प्रत्याशी बन कर। बसंत राजनीति का प्रत्याशी नहीं है वो 'जीवन का प्रत्याशी' है। वही हमारा प्रत्याशी है। और हम उसी के लिए वोट माँग रहे हैं। बसंत को चुनना व्यक्ति या समाज के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानवता के लिए जरूरी है। क्योंकि बसंत का अर्थ मौसम नहीं प्रकृति होता है। और आज हम प्रकृति से इतने दूर हो गए हैं जितना आज के पहले कभी नहीं थे।
सोचिए! कितने दिन हुए जब आपने सूरज की पहली किरन की ओर मुस्कुरा के देखा था?
याद कीजिए कब डूबते हुए सूरज को देखकर आप अपने जीवन के दुख दर्द पर आखिरी बार उदास हुए थे?
सोचिए! कोयल आज भी कूकती है लेकिन कितने साल बीत गए किसी विरहन कोयल की कूक पर आपने कूऽऽ कूऽऽ बोल कर उसे चिढ़ाया नहीं!
बताइए बरगद के पत्तों को गोल कर के आखिरी बार सीटीयाँ कब बजाईं थीं आपके होठों ने?
याद कीजिए बरगद के पत्तों के बैल कब बनाए थे और पीपल की पत्तियों के ताले कब बनाए थे!
सोचिए! सब्जियों के खेत में एक डंडे पर टांगी गई हांडी, उसे जबरदस्ती पहनाए गए बड़े से कुर्ते और उसकी दोनों फैली हुई बाँहें! अब बताइए बिजूके को भूत समझ कर डरे हुए कितने साल बीत गए?
सोचिए! महुए की गंध आम के मोजरों की महक या बत्तखों का पानी में शोर करते हुए आपस में धक्का मुक्की करते कब महसूस किया था?
सोचिए! बसंत ऋतु की पियरी साड़ी में से कुछ पीले सरसों के फूल तोड़ कर कब आपने अपने कानों में गहने की तरह पहना था?
सोचिए! कितने साल यूँ ही गुजर गए और आपने अपने कानों के पास गेंदे के फूल लगाकर आइने में खुद को नहीं देखा।
सच बताइए तब खुद से मुहब्बत नहीं हुई जाती थी? सच बताइए दिल मचलने की बेपनाह जिद नहीं किया करता था?
सूनी सी दोपहरी में जब सारा जहाँ सोता था, तब आपने घर के भीतरी आलमारी में से चुरा कर अपने गालों पर पाउडर लगाए थे, कानों में नीम के फलियों के टाप्स पहने थे और पुराने से दुपट्टे की साड़ी पहनी थी। दूल्हा दुल्हन के खेलों से लेकर रूठना, मनाना, नाचना, गाना सब जैसे न जाने कहाँ चला गया!
सोचिए! मधुमक्खियों के टंगे हुए छत्तों की ओर एक कंकर फेंकने का मन किए कितना अरसा बीत गया!
बंदरों को किसिम किसिम से मुँह बनाकर चिढ़ाए कितने युग बीते हैं!
          हो सकता है आप कहें कि असित भाई अब हम बड़े हो गए हैं न! जानते हैं यह बड़े होने का अभिशाप हमें हमारी जड़ से काट देता है। हमें वास्तविक नहीं रहते देता,आभासी बना देता है। हमें भौतिक और वैज्ञानिक बना कर हमारे भीतर के जीवन और रस को चूस लेता है।
नहीं! हम सूर्य चंद्र हिमालय और धरती से बड़े नहीं।अपने आगोश में इन्होंने न जाने कितने मानव वंश का उदय और पतन देखा होगा। हम बहुत छोटे हैं आज भी एकदम बच्चे से...
बताइए! हम होली के रंगों में खुलकर डूब नहीं सकते।भर मुट्ठी अबीर से किसी को नहला कर ठहाके नहीं लगा सकते। पलाश के ललके फूलों को हाथों में रगड़ कर हाथ कट जाने का बहाना नहीं कर सकते। खुशी के क्षण में चिल्ला चिल्ला कर आसमान सर पर नहीं उठा सकते। दुख के अनचाहे मौसम में किसी के कंधों पर सर टिका कर रो नहीं सकते... इसे आप 'बड़ा होना' कहते हैं और मैं इसे 'संकुचित होना' कहता हूँ।
बसंत को जरा भी फर्क नहीं पड़ता कि आपकी अवस्था क्या है! आप अब भी कहीं खेतों की क्यारियों में लगाए धनिये की पत्तियों के ऊपर खिले फूलों को कानों में पहन सकती हैं। आप अब भी दूर तक फैली हुई सरसों की पियरी चुनरी के बीच लाल साड़ी में खड़ी होकर घूँघट की आड़ में शरमा सकती हैं। आप अब भी तितलियों के लिए भर दोपहर दौड़ते भागते रह सकते हैं। आप अब भी पीपल की पत्तियों पर डाॅट पेन से 'उसकी' यादों वाली शायरी लिखकर अपने दीवानगी पर ठहाके लगा सकते हैं...।
बसंत तो चिर युवा है, छलिया है, रूप ग्राही है उसे आपकी उम्र से क्या मतलब!
          बसंत को चुनना प्रकृति को चुनना है, उमंग, उत्सव, हरियाली और मादकता को चुनना है।बसंत को चुनना मतलब जीवन की सहजता को चुनना है। बसंत को चुनना मतलब जीवन में वास्तविक जीवन को चुनना है। लेकिन यह ईवीएम के बटन दबाने जैसा आसान नहीं है। यह विधायक और सांसद चुनने जैसा आसान नहीं है।
क्योंकि जैसे ही आपने बसंत को चुना आपको कोयल की कूक सुनने के लिए पेड़ लगाने होंगे। क्योंकि पेड़ ही वो जगह होती है जहाँ  बसंत अपने पोस्टर्स लगा कर अपने आगमन की सूचना देता है। आपने जैसे ही सरसों के फूल चुने आपको गाँवों को संरक्षित करने की जरूरत पड़ेगी। जैसे ही आपने बत्तख का तैरना चुना आपको तालाब संरक्षित करने पड़ेंगे। जैसे ही आपने सूर्योदय देखना चाहा वैसे ही आपको ब्रह्म मुहूर्त में उठना होगा।
सोचिए चुनाव के इस शोर में बसंत का आगमन भी हुआ है। जिस पर किसी की नज़र नहीं। इतना भी मुश्किल नहीं है बसंत को चुनना। आइए बसंत को वोट दीजिए! मेरे प्रत्याशी को वोट दीजिए...

असित कुमार मिश्र
बलिया

Monday, February 20, 2017

हिन्दी साहित्य का अजीब काल

इधर बसंत आया और उधर वेदप्रकाश शर्मा चले गए।बचपन में जितनी भी मार खाई उसमें पचास प्रतिशत के कारण यही थे। फौजी नियमों के अनुसार पापा दोपहर में साढ़े तीन घंटे के लिए सोते थे और उतनी ही देर में मुझे वो मोटी सी तीन सौ पन्नों की किताब उनके तकिए के नीचे से चुरा कर खतम कर देनी होती थी।एक पुलिस अधिकारी से चोरी करना हँसी मजाक नहीं होता।पूरी पी एचडी करनी होती है। पहले नीम की सींक लेकर पापा के दाहिने कान के पास हल्के हल्के गड़ाना ताकि वो बायें करवट हो सकें और हम उनके तकिए के नीचे से शर्मा जी के उपन्यास सरका सकें। फिर किसी लंबी सी काॅपी के बीच में उसे छुपा कर जल्दी जल्दी पढ़ना। इसी में कभी पकड़े भी जाते थे फिर क्या! अरुणांचल प्रदेश में पापा की कैद से भागे दो उग्रवादियों का गुस्सा भी मुझी को झेलना पड़ना था। शायद वो नशा था,कोई दीवानगी थी कि महीनों तक उनके 'कारीगर' उपन्यास का संवाद - 'नफरत ही मुहब्बत की पहली सीढ़ी होती है' गूँजते रहे। कोई जूनून ही था जो 'कानून का बेटा' के दर्जनों पन्ने जबानी आज भी याद हैं। और इस नशे की गिरफ्त में मैं अकेला नहीं लाखों लोग थे। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जिन्हें उतरना था पिछले रेलवे स्टेशन पर लेकिन एक हाथ में अटैची और दूसरे हाथ में 'वो साला खद्दर वाला' लिए उतरे अगले स्टेशन पर। 'वर्दी वाला गुंडा' आठ करोड़ प्रतियों में बिकी। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि अगर कोई उपन्यास दो भागों में आया तो पहला भाग पढ़ चुके लोग शर्मा जी को चिट्ठियाँ लिख देते थे कि जल्दी दूसरा भाग लाइए...
आज जितनी भी मेरी साहित्यिक समझ है उसमें नि:संकोच कहूंगा कि मुझे इस तरह बाँध देने वाला, एक मटमैली सी पन्नों वाली किताब में खाने पीने की सुध बुध भुला देने वाले दूसरे किसी लेखक को नहीं जानता मैं।
         सभ्य साहित्य अक्सर ऐसे लेखकों और उनकी रचनाओं को लुगदी साहित्य कहता रहा है और मुझ जैसे लाखों पाठकों को अधकचरी समझ का पाठक। कहने को तो फेसबुक पर लिखी जा रही कविता कहानी को भी मुख्य धारा का साहित्य दोयम दर्जे का ही मानता है और मज़े की बात यह कि वो यह लिखने के लिए फेसबुक पर ही आता है। यह मुख्य साहित्य जो विमोचन की मेज से लाइब्रेरी की दराज़ तक दम तोड़ देता है उसकी मान्यता है कि - "वेद प्रकाश शर्मा के दौर में निराला कहाँ से होंगे?
अधकचरी समझ वाले पाठकों के बीच उदय प्रकाश कैसे समझे जाएंगे?
       बड़े आश्चर्य का विषय है कि यह सवाल करने वाले उसी खत्री जी की विरासत संभाल रहे हैं जिन्होंने फारसीदां को हिंदी पढ़ना सिखा दिया। पहली बात तो यह कि निराला और वेद प्रकाश शर्मा में कोई तुलना ही नहीं। हिन्दी की यह दशा! कल को सुपर कमांडो ध्रुव और नागराज के काॅमिक्स से कामायनी की तुलना करने लगिएगा क्या?
दरअसल वेदप्रकाश शर्मा या लुगदी साहित्य के कवियों से मुख्य धारा का साहित्य प्रभावित नहीं होता बल्कि मुख्य धारा का साहित्य संक्रमित है इसलिए लुगदी साहित्य है। आज के मुख्य धारा की हिंदी आत्मकेंद्रित आत्ममुग्ध और मठों की स्थापना में व्यस्त है। पुराने पैर फैलाए हैं और नये वंदन में संलग्न।
पूछ तो रहा हूँ कि हरिऔध को जन्मने के बाद आजमगढ़ की धरती बाँझ हो गई क्या जो आज कोई हरिऔध नहीं होता? बलिया की धरती एक हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद बंजर हो गई जो आज पंडित जी की धारा का साहित्यकार नहीं होता? फर्रुखाबाद की पवित्र धरती के कोख से एक महादेवी ही हुईं उसके बाद कोई नहीं? सिमरिया घाट बिहार की स्वर्णिम भूमि दिनकर के बाद मौन क्यों हो गयी? इस सबका दोषी लुगदी साहित्य और अधकचरे पाठकों पर मढ़ने वाले हिंदी के भाग्यविधाताओं यह आत्मचिंतन का समय है आपके लिए।
           पिछले दिनों संजय लीला भंसाली और पद्मावती प्रकरण पर 'जौहर' खंडकाव्य इतने लोगों ने शेयर किया कि फेसबुक व्हाट्स ऐप सब भर गया। 'जौहर' या 'चेतक' की गाथा ही नहीं पूरे वीरभूमि राजस्थान के गौरवपूर्ण इतिहास के रचयिता श्यामनारायण पांडेय मेरे पड़ोसी जिले मऊ के थे और पिछले हफ्ते विज्ञापनों के बीच जितनी साहित्य की औकात होती है उतने में ही पांडेय जी की विधवा समाजवादी पेंशन के परेशान खड़ी दिख रही हैं। जाइए उनके पास और पूछिए कि आपके पति ओज वीरता और ऊर्जा के कवि थे आप अपने पोते को हिंदी का साहित्यकार बनाइए न!
उर्दू अदब के किसी बुजुर्ग मोहतरम से पूछिएगा कि गालिब बल्लीमारां के गली के आखिरी छोर पर नंगे पाँव किसे छोड़ने आते थे? जवाब होगा - सोज़ सिकन्दरपुरी को।
अब उसी सोज़ सिकन्दरपुरी के वारिस साइकिलों की मरम्मत का काम करते हैं। आइए पूछिए न सोज़ सिकन्दरपुरी दोबारा क्यों नहीं हुए?
इसलिए नहीं हुए कि ये हिन्दी उर्दू भोजपुरी की आलीशान अकादमियाँ बंजर और बांझ हो चुकी हैं। और दोष मिट्टी के माथे मढ़ रही हैं।आज भी आजमगढ़ की धरती हजारों हरिऔध पैदा करती है बलिया की धरती हजारी प्रसाद द्विवेदी पैदा करती हैं लेकिन मुख्य धारा का अहंकार उनकी मठाधीशी उनके पुरस्कार इनकी भ्रूण हत्या कर देते हैं।
            एक व्यक्ति पांच साल जनता की सेवा करने का ढोंग करता है और विधायक सांसद बनता है। मात्र पांच साल के कार्यकाल के बाद उसे पेंशन मिलने लगती है। एक 'कामायनी' रचने में चौदह साल लगते हैं और बदले में...
पिछले पांच सालों में बुद्धिनाथ मिश्र के अलावा कोई रामावती देवी का हालचाल लेने नहीं गया। अब तक किसी अकादमी ने सोज़ की खबर नहीं ली और हिंदी की फिक्र में दुबले हुए जा रहे हैं।
एक और बात 'अधकचरी समझ' वाले पाठकों की 'रुचियों का परिष्कार' आपकी भाषा में 'सहृदय बनाना' किसका काम था? इन्हीं मुख्य धारा के लेखकों और अकादमियों का काम था। आज सैकड़ों पत्रिकाएँ और हजारों अकादमिक किताबें छप रही हैं। लाइए यहाँ किसी एक को भी जो कह दे कि मैंने आपकी पत्रिका या आपकी किताब पढ़ने के लिए हिंदी सीखी है।
लेकिन मेरी तरह हजारों की संख्या में लोग हैं जो वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ कर ही मुख्य धारा में आए।
मैंने सभ्य लोगों के दर्जनों किताबों का मूल्य तीन सौ चार सौ देखकर रख दिया। इच्छा होते हुए भी नहीं पढ़ पाया। अब आप कहेंगे कि - चल भाग यहाँ से गरीब निर्धन भिखारी...
और मैं देख कर हैरत में हूँ कि उस चार सौ रुपए वाली किताब में गरीबों की ही करुण और मार्मिक गाथा छपी है।
एक तो इतनी मँहगी दूसरे लगभग अप्राप्य किताबें मुझ तक नहीं आतीं तो किसी वेद प्रकाश शर्मा पर कुंठा और जलन मत निकालिए यह सोचिए कि वह तीस रुपए में तीन सौ पन्ने कैसे दे देता था?
आज श्रीमती मधु शर्मा 'तुलसी पाकेट बुक्स' के सहारे आराम से जीवनयापन कर सकती हैं। श्यामनारायण पांडेय की पत्नी रामावती देवी की तरह लाइन में नहीं खड़ी होंगी। पूछते क्यों नहीं मुझसे कि असित तुम किसकी मौत चाहोगे? श्यामनारायण पांडेय की या वेदप्रकाश शर्मा की मौत?
जो अकादमियाँ अपने लेखकों को इज्ज़त की दो रोटी नहीं सकती उसे इस बात पर खुश होना चाहिए था कि शर्मा जी कम से कम देवनागरी लिपि में तो लिखते थे। सुनीति कुमार चटर्जी की तरह रोमन लिपि की वकालत तो नहीं की।
फेसबुक पर भी ये कथित सभ्य लेखक आते हैं हिंदी की चिंता में डूबे अपने नये उपन्यास, कहानी संग्रह का रंगीन फोटो टांग कर चले जाते हैं। कुछ लोग हिन्दी के उत्थान में चार पंक्तियाँ घसीट कर चले जाते हैं। इससे अच्छी हिंदी की सेवा होती अगर आप फेसबुक पर लिख रहे किसी नवोदित लेखक की रचना को शेयर कर देते अपनी वाल पर।

Wednesday, February 1, 2017

खाओ तो विद्या माता की कसम

खाओ तो विद्या माता की कसम....
हो सकता है हम में से किसी ने कान्वेंट में पढ़ा हो, किसी ने विद्या मंदिर में, किसी ने मदरसे में या मेरी तरह सरकारी स्कूल में। हम सभी के स्कूल अलग-अलग, टीचर्स अलग-अलग, पाठ्यक्रम अलग-अलग, किताबें अलग-अलग। लेकिन एक चीज काॅमन थी।यही विद्या माता की कसम। जिसे कड़वी दवाई की तरह सबको घोंटना ही पड़ता था। मेरी जिंदगी में यह कसम आँधी-तूफान की तरह नहीं बसंती हवा के झोंके सा आया था।
       उस दिन हिंदी वाले मास्टर साहब नहीं आए थे। हम सभी क्लास में खाली पीरियड का सबसे महत्वपूर्ण काम कर रहे थे - शोरगुल। अगली घंटी इतिहास की, और जैसे ही अगले मास्टर साहब आए, संगीता ने कागज पर कुछ नाम लिखकर मास्टर साहब को दिया।
मास्टर साहब ने पूछा कि क्या है यह?
संगीता ने बताया - सर ये सभी लोग हल्ला मचा रहे थे।
मास्टर साहब ने नाम पुकारा - सुशील मनोज बंटी राकेश असित...
सहसा वज्रपात हो गया हम पर।हमारा नाम लिख कर देने की हिम्मत! अरे हम माॅनीटर हैं इस क्लास के।
और जब मास्टर साहब ने छड़ी मँगवाई तब एहसास हुआ कि माॅनीटर से बड़ा क्लास टीचर का पद होता है।
हमारी आँखों के सामने दोस्तों के हाथों पर छड़ियाँ गिर रहीं थीं। अगला नंबर हमारा था। हम गणित वाले मास्टर जी को छोड़कर( हमने भी कभी उनको मास्टर जी नहीं माना) सबके प्रिय थे। अपनी मासूमियत को आगे कर हमने कहा - माट्साहब! हम नहीं थे इन लड़कों में।
मास्टर साहब ने पूरी क्लास से पूछा - असितवा हल्ला नहीं कर रहा था जी?
लगभग सभी का जवाब नहीं में था और जिनके साथ मैं हल्ला कर रहा था वो चुप रह कर विरोध जता रहे थे।
यूं हम साफ़ बच कर निकल आने वाले थे, तभी संगीता खड़ी हो गई और उसने कहा - झुट्ठे!! खाओ तो विद्या माता की कसम!
            अजीब स्थिति थी। मन में आया कि कसम खा ही लें वैसे भी हम हल्ला गुल्ला नहीं कर रहे थे, बस बात ही तो कर रहे थे और कितने मेगाहर्ट्ज तक की आवाज़ 'हल्ला-गुल्ला' मानी जाएगी ये किस स्कूल में लिखा रहता है जी? मतलब विद्या माता की कोर्ट में मुझे संदेह का लाभ मिल सकता था। वैसे भी विद्या माता से मेरा संबंध बहुत अच्छा था। क्योंकि हम अपने सभी दोस्तों की तरह हर विषय में विद्या माता को 'तकलीफ' नहीं दिया करते थे। बहुत हुआ तो गणित के दिन एक दो बार सच्चे मन से दिल में ही कह लिया - हे विद्या माता देखना हम त्रिभुज बनाएँ तो वो त्रिभुज ही बने पिछली बार की तरह चतुर्भुज न बन जाए।
अच्छा अगर खा भी लेते झूठी कसम तो मेरा कुछ होता नहीं क्योंकि दोस्तों ने बताया था कि स्कूल के बीचोंबीच जो बरगद का पेड़ है उस पर हनुमानजी रहते हैं और उस पेड़ को सात बार छूने से झूठी कसमों का असर खत्म हो जाता है। इस बात को झूठ मानने का कोई आधार भी नहीं था और जरूरत भी नहीं। मतलब हमारे पास कसमों का बहुत तगड़ा एन्टीबाॅयोटिक था। लेकिन मेन प्राॅब्लम यह थी कि मेरी माँ का नाम भी विद्या था। और दोस्तों ने बता रखा था कि- "माँ की झूठी कसम कभी नहीं खाते। इसका एन्टीबाॅयोटिक है ही नहीं"।
मैंने माँ से कई बार कहा भी कि तुमको दुनिया में यही एक नाम मिला था। अरे लीलावती कलावती विमलावती कुछ भी रख लेती... नाम रखा भी तो विद्यावती हुँह! यूं जीवन के भवसागर में बहुत बार जहाँ मेरे दोस्त आसानी से विद्या माता की कसम खा कर पार हो जाते थे,वहीं डूब जाते थे हम। इस मामले में बड़े बदनसीब रहे। और इस दुख को व्यक्त करने के लिए हमने एक शायरी भी रखी थी -
हमें तो सुरती ने लूटा दारू में कहाँ दम था।
चिलम भी वहीं फूटी जहाँ गांजा कम था।।
          लेकिन दोपहर की छुट्टी में संगीता पास आई और उसने कहा - कि राकेश तो झूठी कसम खा कर बच गया तुम क्यों नहीं कसम खाए?
हमने पी वी नरसिम्हा राव की तरह मुँह बनाकर कर कहा - हम झूठी कसम नहीं खाते। और जब एतना ही मोह था हमारा, तो हमको पिटवाई कांहे? जानती तो हो गणित को छोड़कर आज तक हम किसी घंटी में पिटाए नहीं थे।
संगीता ने मासूमियत से कहा - अच्छा माफ़ कर दो हमको...
हमने संगीता की आँखों में देखा। कुछ गहरी सी, कुछ भरी भरी सी और मासूम तो एकदम हमारी ही तरह। हाँ! दोस्तों ने बता रखा था कि सच जानना हो तो सामने वाले की आँखों में देखना।
हमने माफ कर ही दिया दूसरा उपाय भी तो नहीं था।
       अगले हफ्ते से परीक्षा शुरू हुई। हमने विद्या माता को याद किया - विद्या माता जी गणित में सत्रह नंबर आ जाए बस!!
एक दिन की छुट्टी के बाद सबका रिजल्ट आना था।सबकी तरह मेरा भी अंक पत्र मेरे सामने था - असित कुमार मिश्र। हिंदी 50/50 संस्कृत 50/49 गणित 50/ 15.... अब आगे देखते कैसे! फेल हो चुके थे हम। विद्या माता की अदालत में हमारी सुनवाई नहीं हुई।
गणित वाले मास्टर साहब आए और मेरी तरफ मेरी कापी फेकते हुए बोले तुमको त्रिभुज तक बनाने नहीं आता... हद है!
कापी मेरे पास तक उड़ती फड़फड़ाती आ रही थी लेकिन संगीता ने पकड़ लिया और पूरी कापी चेक की। अचानक उठी और गणित वाले मास्टर जी के पास जाकर कुछ कहा। मास्टर जी चौंके फिर चश्मा लगाया, फिर लाल कलम निकाली और मेरी कापी पर कुछ लिखा।
इधर हम आत्महत्या की सबसे आसान विधि ढूंढ रहे थे उधर मेरा दूसरा अंक पत्र बन कर आया उस पर लिखा था - असित कुमार मिश्र। हिंदी 50/50 संस्कृत 50/49 गणित 50/17... खुशी के मारे आँखों से आँसू आ गए।
हमने संगीता के पास जाकर पूछा कि ऐसा क्या कहा था तुमने मास्टर जी से?
संगीता ने बताया - अरे कुछ नहीं। एक चार नंबर के सवाल में तुमको दो नंबर मिल गए थे गलती से।
मैं आने लगा तो उसने कहा - अच्छा! त्रिभुज वैसे ही बनाते हैं? तुमको त्रिभुज तक बनाने नहीं आता?
हमारे मुँह से निकला - देखो बनाए तो थे हम त्रिभुज ही, अब कम्बख्त वो तुम्हारी आँख बन गई तो हम क्या करें?
सं ने लजा कर कहा - झुट्ठे! खाओ तो विद्या माता की कसम...
नहीं! अबकी झूठी कसम नहीं खाई हमने।
असित कुमार मिश्र
बलिया